मजदूरी कर बच्चों के लिए दूध खरीद रही गुरमाहा की महिलायें

आदिवासी समुदाय की विसंगतियों पर सरकार गंभीरतापूर्वक विचार करती तो शायद आदिवासी समुदाय के लोगों को जंगल से नाता नहीं तोड़ना पड़ता। व्यवस्था की विसंगतियों ने इन्हें जल, जंगल और जमीन से बेदखल करने को मजबूर कर दिया। कुछ ऐसी ही स्थिति बरहट के जंगली इलाके में रहने वाले उन आदिवासियों की है जो आज विस्थापित की जिन्दगी जीने को विवश हैं।आदिवासी महिलाओं ने जो बातें बताई वह शासन-प्रशासन की कार्यशैली पर सवाल खड़ा कर रहा है।
कुमरतारी गांव की मीना देवी को जंगल छोड़ने का मलाल तो है लेकिन धान रोपनी से हो रही आमदनी की खुशी भी है। वह बताती है कि प्रतिदिन डेढ़ से दो सौ रुपये की कमाई हो जाती है। मीना इकलौती नहीं है। जंगल के चार गांवों से नाता तोड़कर आने वाले सौ से अधिक महिलाओं को बरहट में इन दिनों रोजगार मिल गया है। सभी महिलाएं स्थानीय किसान के खेतों में जाकर धान की रोपनी करती हैं। इसके एवज में उन्हें कमाई हो रही है जो उनके जख्मों पर मरहम के समान है। कमाई के पैसे से महिलाएं बच्चों के लिए दूध का इंतजाम करती हैं। विस्थापित की जिन्दगी जी रहे पुरुष भी किसानों के खेतों में काम करने चले जाते हैं। यह बात दीगर है कि मेहनत की बदौलत वे अपनी मुसीबतों से जूझती जिन्दगी जी रहे हैं लेकिन, यह भी सच है कि अगर शासन-प्रशासन स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर प्रदान करता तो शायद जंगली इलाके के लोगों को विस्थापित की जिन्दगी जीने को मजबूर नहीं होना पड़ता।

-अभिषेक कुमार सिंह, जमुई।

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